Vrindavan Mahimamrita - Hindi :
प्रथम शतकम्
श्रीराधा-मुरलीमनोहर-पदाम्भोजं सदा भावयन् श्रीचैतन्यमहाप्रभोः पदरजः स्वात्मानमेवार्पयन् । श्रीमद्भागवतोत्तमान् गुणनिधीनत्यादरादानमन् श्रीवृन्दावन-दिव्यवैभवमहं स्तोतुं मुदा प्रारभे । ।१।।
श्रीराधा तथा श्रीमुरलीमनोहर के चरणारविन्दों का निरन्तर ध्यान-स्मरण करता हुआ, श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु की चरण-रज में आत्म-समर्पण कर एवं कल्याण-गुणसागर भक्तशिरोमणिवृन्द के चरण कमलों में अतिशय आदर सहित बारम्बार प्रणाम कर आनन्दपूर्वक मैं श्रीवृन्दावन के दिव्य (चिन्मय) वैभव की स्तुति करने में प्रवृत्त होता हूं। ।१।।
ईशोऽपि यस्य महिमामृतंवारिराशेः पारं प्रयातुमनलं बत तत्र केऽन्ये । किन्त्वल्पमप्यहमतिप्रणयाद्विगाह्य स्यां धन्य धन्य इति मे समुपक्रमोऽयम् ।।२।। जिस श्रीवृन्दावन के महिमामृत समुद्र के पार जाने में स्वयं ईश्वर भी असमर्थ हैं- फिर इस काम के लिये और कौन साहस कर सकता है ? किन्तु अत्यन्त प्रीतिपूर्वक मैं इस समुद्र में यत्किञ्चित अवगाहन कर भी धन्य-धन्य हो जाऊँगा-इसलिये ही मेरी यह चेष्टा है।।२।।
श्रीमदृन्दाटवि ! मम हृदि स्फोरयात्म स्वरूपं
अत्याश्चर्यं प्रकृतिपरमानन्द विद्यारहस्यम् । पूर्णब्रह्मामृतमपि हिया वाऽभिधातुं न नेति
ब्रूयुर्यत्रोपनिषद इहात्रत्य वार्ता कुतस्त्या।।३।।
हे श्रीमदृन्दाटवि ! अति आश्चर्यजनक स्वाभाविक परमानन्द-विद्या-रहस्ययुक्त जो आपका स्वरूप है, उसकी मेरे हृदय में स्फूर्ति कराओ। पूर्णब्रह्मामृत के ही वर्णन करने में लज्जित होकर जब उपनिषद् "नेति नेति" पुकार रहे हैं, तब इस श्रीवृन्दावन की महिमा के विषय में और क्या कहा जाये? ।।३।।
राधाकृष्णविलासपूर्ण सुचमत्कारं महामाधुरी-सारस्फार चमत्कृतिं हरिरसोत्कर्षस्य काष्ठां पराम् ।
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