Gita Govindam (श्रीगीतगोविन्द) - श्रीजयदेव कवि द्वारा रचित श्रीगीतगोविन्द गीति-काव्य को उज्ज्वल रससुधा के पिपासु रसिकवृन्द के करकमलों में सहर्ष समर्पण करने में अपने सौभाग्यों की परासीमा समझता हूँ। वस्तुतः यह गाथामय श्रीगीतगोविन्द एक महाकाव्य है। इसकी विशुद्ध सुरतानलय में शानलय में मधुर कोमल-कान्त पदावली को सुनने के लिये मनुष्य-देवताओं की तो क्या बात, भगवान् श्रीजगन्नाथ देव भी विमुग्ध हो जाते हैं। गम्भीरालीला में महाप्रभु श्रीगौरांग सुन्दर श्रीगीतगोविन्द का आस्वादन करते हुए आत्मविस्मृत हो जाते थे। इसकी काव्य-भाव में उद्भासित सौन्दर्य, माधुर्यपूर्ण लालित्य-सम्पदा ने प्रचुररूप में संस्कृत-साहित्य भण्डार को अद्वितीय एवं अतुलनीय निधि से परिपूर्ण तो किया ही है, मधुर प्रेम भक्ति के मन्दाकिनी-प्रवाह में श्रीश्रीराधामाधव का जो महाभाव सुधा-सिन्धु तरंगायित हुआ है, वह इसकी सर्वोपरि अनुपम विभूति है। श्रीकविवर ने सम्पूर्ण ग्रन्थ को बारह सर्गों तथा चौबीस गीतों में निबद्ध किया है। हर एक सर्ग का विषयानुकूल नामकरण किया है। सर्गों के नामों से ही श्रीगोविन्द की मनः स्थिति स्पष्ट झलकती है, जो उनकी प्राणवल्लभा मादनाख्य-महाभाव स्वरूपिणी श्रीराधिका की भाव-वैचित्री की परिणति है। 'सामोद-दामोदर' नाम है प्रथम सर्ग का। इस प्रथम सर्ग में सर्वप्रथम मंगलाचरण के साथ श्रीगीतगोविन्द के प्रतिपाद्य विषय श्रीश्रीराधा-माधव की रहः केलि के सुरम्य स्थान कमनीय कालिन्दीतटस्थ तमालकुंज श्रीवृन्दावन की सूचना दी है। फिर इस महाकाव्य के श्रवण-मनन के अधिकारीजन का उल्लेख किया है। श्रीवृन्दावनीय रहः केलि के उत्कर्ष का स्थापन करने के लिये स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के श्रीजगन्नाथ देवरूप की वन्दना की है, तदनन्तर उनके दसावतारों-भगवदवतारों का जयगान किया है।
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